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खुदरा विपणन के क्षेत्र में फ़ारेन डाइरेक्ट इन्वेस्टमेंट (एफ़डीआई) देश और गरीब दोनों के ही हित में नहीं है, इस तथ्य से सभी अवगत हैं, खुद सरकार भी । फ़िर भी विदेशी कम्पनियों को अपनी पूँजी भारत के खुदरा बाज़ार में घुसाने की अनुमति देने हेतु कांग्रेस सरकार ने क्या-क्या पापड़ बेले, इसकी जानकारी भी सभी को है । अपने सबसे तेज-तर्रार समर्थक दल टीएमसी (तृणमूल कांग्रेस) तक को गँवा कर, तमाम तिकड़म रचाकर, अन्तत: सरकार ने बन्द दरवाज़ों से कुंडा गिरा ही दिया । फ़िर भी जिन शक्तियों के निरन्तर दबाव के कारण सरकार को यह क़वायद करनी पड़ी, वह अभी भारत में अपने पाँव जमाने से कतरा रही हैं । वालमार्ट, टेस्को एवं कैरेफ़ोर जैसी अमेरिकन व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अबतक भी यहाँ के किसी शहर में अपना तम्बू लगाने की कार्यवाही शुरू नहीं की है, जिनकी खुदरा क्षेत्र में निवेश की हिस्सेदारी का प्रतिशत सर्वाधिक रहने की सम्भावना है ।
बड़ी विदेशी कम्पनियों की हिचकिचाहट का कारण यह है कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की जो शर्तें विपक्ष के दबाव में सरकार को रखनी पड़ी थीं, उनमें से एक शर्त यह भी है कि खुदरा बिक्री हेतु कुल खरीदे गए माल का एक तिहाई हिस्सा विदेशी कम्पनियों को भारत के छोटे उद्यमियों से खरीदना होगा । इस शर्त की कीमत शायद कम्पनियाँ उस वक़्त नहीं समझ पाई थीं, परन्तु भारतीय खुदरा बाज़ार की असलियत जैसे जैसे उनके सामने आ रही है, उन्हें लगने लगा है कि जल्दबाज़ी में लिया गया निर्णय कहीं बाद में बहुत भारी न पड़ जाय, और छब्बे बनने के चक्कर में चौबे जी कहीं दूबे न बन जायँ । विदेशी कम्पनियों को भारत की जनसंख्या तो नज़र आई, परन्तु खुदरा बाज़ार कहाँ-कहाँ बसता है, इसका अंदाज़ा उन्हें अपने बाद के सर्वेक्षणों से ही पता चल पाया होगा ।
असलियत यह है कि कम्पनियाँ अपने देशी-विदेशी माल के बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर्स को हमारे कस्बाई एवं ग्रामीण क्षेत्र के बाज़ारों तक तो पहुँचा नहीं सकतीं, जबकि खुदरा खरीदारी के उपभोग से जुड़ा सबसे बड़ा तबका आज भी यहीं बसता है । इस तबके को आज भी दो रुपए की चीनी, पाँच रुपए का मसाला और साथ लेकर गई शीशी में दस रुपए का सरसों तेल खरीदने की आदत है, जिसकी आपूर्ति का ज़रिया नुक्कड़ और चौराहे पर खोली गई परचून की दुकानें ही हो सकती हैं । यह न तो वालमार्ट सहित अन्य विदेशी कम्पनियों के वश की बात है, और न ही बिग बाज़ार, रिलायन्स फ़्रेश, रिलायन्स मार्ट या स्पेंसर्स जैसी देशी कम्पनियों के । यह तबका बड़े शहरों में खोले गए इनके स्टोर्स में भाड़े की गाड़ी से जाकर सामान खरीदने के बाद अपने घर लौटेगा, यह मात्र कपोल कल्पना की बात है । अब यदि बड़े शहरों और महानगरों की बात करें, तो वहाँ की स्थिति भी कम से कम विदेशी कम्पनियों के लिये तो बहुत उत्साहजनक नहीं कही जा सकती । इन शहरों में भी भारत की अधिसंख्य आबादी का वही तबका आकर बसता है, जो ग्रामीण आधार वाला है । यह सही है कि शहरी क्षेत्र की आबादी में निम्न-मध्यवर्ग से अपग्रेड होकर उच्च-मध्यवर्ग में शामिल होने वालों की तादाद विगत वर्षों में खूब बढ़ी है, परन्तु खरीदारी की उनकी आदतें काफ़ी धीरे-धीरे बदल रही हैं । जीवनशैली एवं धंधे-रोजगार की प्रकृति फ़ास्ट होते जाने से पहले की अपेक्षा समय का टोंटा अवश्य बढ़ा है, जिसकी देन है कि अब एक ही छत के नीचे घरेलू उपभोग की ब्रांडेड सामग्री सहित साग-सब्ज़ियों, फ़लों की खरीदारी का क्रेज़ बढ़ा है । इसी उच्च-मध्यवर्ग की बदौलत ही विगत वर्षों में देश के बड़े शहरों में माँल व देशी डिपार्टमेंटल स्टोर्स की संस्कृति को फ़लने-फ़ूलने का खूब मौका मिला है, जो विदेशी कम्पनियों के लिये आकर्षण का सबब बना । दिक्कत ये है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को कम से कम लागत में भारी मुनाफ़ा कमाने का चस्का है, इसलिये एक तिहाई तैयार माल देश के उद्यमियों से खरीदकर बेचने, और अपने मुनाफ़े के इतने बड़े प्रतिशत को काले हिन्दुस्तानियों की जेब में जाता हुआ देखना उन्हें हजम नहीं हो पाएगा । कच्चा माल खरीदकर मैन्यूफ़ेक्चरिंग करने से उन्हें शायद ही गुरेज हो, परन्तु यहाँ शर्त तैयार माल खरीदने की है । इस एक तिहाई खरीदारी और एक तिहाई शहरी आबादी द्वारा ही अपना माल खरीदे जाने की सम्भावनाएं इन कम्पनियों को तम्बू गाड़ने से निरुत्साहित कर रही हैं । ये सरकार से नियमों-शर्तों में और ढील चाहती हैं ।
फ़िर भी, जब रास्ते खोलने और बनाने की बात है, तो आज नहीं तो कल ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारत में अपने पाँव जमाएंगी, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिये । अमेरिका को चीन को टक्कर देने के लिये भारतीय खुदरा बाज़ार की ज़रूरत है, और वह किसी भी तरह इसे हासिल करेगा ही, वह भी अपनी शर्तों पर । विश्वबैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष आदि की चाबी उसके पास है, और वह जो चाहेगा, दुनिया की कर्ज़खोर सरकारों को उसकी शर्तें माननी ही पड़ेंगी । सरकार को खुद अपने दलगत हितों के लिये भी एफ़डीआई के पाँव जमाने में भरपूर मदद करना आवश्यक है । आने वाले चुनावों में उसे वोट चाहिये, और वोट के लिये नोट । भ्रष्टाचार ने सरकारी खजाने में जो छेद बनाया है, उसका रिसाव रोक पाना उसके बूते की बात नहीं है । अर्थव्यवस्था की कमर टूट चुकी है, रफ़्तार भी शिथिल है । कर्ज के बलपर अर्थव्यवस्था में पैबन्द लगाने के लिये व्याजदर का कम होना अनिवार्य है । एफ़डीआई निवेश से जो पैसे देश में आएंगे, उससे व्याजदर पर थोड़ा-बहुत अंकुश ज़रूर लगेगा, इसकी सम्भावना बनती है । अर्थव्यवस्था में टेक लगाने के लिये अंधाधुन्ध कर्ज़ लेने के भी तमाम खतरे हैं । इससे अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसियाँ रैंक कम करेंगी, तो फ़िर एफ़डीआई निवेश हतोत्साहित होगा, जिसका खतरा मोल लेना वर्तमान स्थिति में सरकार नहीं चाहेगी । वह चाहेगी कि विदेशी निवेश के माध्यम से नकद लिक्विडिटी का फ़्लो किसी भी तरह बढ़े, ताकि व्याजदरों पर नियन्त्रण के साथ-साथ बिक्री एवं अन्य माध्यमों से टैक्स की वसूली में भी इज़ाफ़ा हो ।
परन्तु सरकार को ये नक़ली फ़ायदे गरीबों और देशी कम्पनियों को और झटके देकर ही हासिल हो पाएंगे । जो दो तिहाई विदेशी माल इनकी दुकानों में आएगा, वह हर लागत के बावज़ूद विदेशी कम्पनियों के लिये बहुत सस्ता पड़ेगा, और वे उसे सस्ता बेचकर हमारे देशी व्यापारियों की जड़ें खोदने का काम करेंगी । आज जिस प्रकार बाज़ार में चीन के सस्ते माल के कारण देशी व्यापारियों के लिये एक अप्रिय स्थिति उत्पन्न हुई है, एफ़डीआई उस स्थिति को और भयावह बनाएगी । चीन से अभी तक मात्र इलेक्ट्रानिक और इलेक्ट्रिकल देशी बाज़ार को ही झटका लगा है, जबकि एफ़डीआई इस प्रहार को हमारे किचन, बाथरूम और बेडरूम की रेंज तक ले जाने वाली है । देशी खुदरा बाज़ार से गरीबों के लिये जो रोज़गार के अवसर उपलब्ध हैं, विदेशी कम्पनियाँ इन अवसरों और जमे-जमाए रोज़गार का आकार-प्रकार सिकोड़कर कितना छोटा बना देंगी, इसका अभी बस अनुमान ही लगाया जा सकता है, सही आकलन भविष्य ही तय करेगा ।
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